Thursday, September 25, 2014

उलझन

                 
            

वाइज़  कहता  इबादत किया कर. 

बिरहमिन ये कहता  जपा कर जपा कर.

आसान   रहे  तकलीद  है, पर .

तबीयत को ये बात  भाती नहीं है. 


हाजी को हसरत है शराबों कि, हूरों की. 

पंडित गाता   कथा गोपियों  की.  

क्या तीरथ औ  जिआरात से उन्हें ये मिलेगा ?

मगर मैं तो खुश हूँ,  अभी  जो मिला है.                


मैं इंसान हूँ सीधा सा भोला भाला.  

जीवन में तवक्को है आसानियों की. 

मुझे क्यों धमकाते है तेरे ये दल्ले. 

हसरत नहीं   फिलसफों पर  बहस की.  



अर्शें बरी है  तू  इंसान का अब्बा. 

रहीओ करीम है तू  इंसान का अब्बा. 

मगर हमसे  फिर  क्यों मुकाबिल नहीं है. 

गमो औ खुशी में तू  शामिल नहीं है. 


इजाज़त जो गर दे तो सच सच  बता दूं. 

डरता हूँ वाइज़ क्या कहेगा, बिर्हमिन क्या करेगा.

डरता हूँ तुझसे भी, कि   तू क्या करेगा.

दोज़ख में मुझ पर सितम ही करेगा.  


नसीबे कि गर्दिश को मैं झेलता हूँ. 

तूफानों की शिद्दत से भी  जूझता  हूँ.

वाइज़, तेरा  तो   बनता है बातें.  

दुनिया के झगड़ों  को  मैं जानता हूँ. 



जीवन की  सोजिश न निर्वाण में है. 

मुक्ति में आसार -ए- बोरियत  है.  

तेरे  फैसलों  की वजह मैं न जानूं. 

कयामत के डर से मैं सुन हो चला  हूँ. 




 बैठे अर्श पर तू   देखे है तमाशा.  

फर्श की हकीकत को क्यों जान पाया. 

बिरह्मिन-ओ  वाइज़ को  गमश्ता बनाया. 

बशर को पापी औ मुज्रिन बताया. 




जो कुछ भी होता है तेरी रज़ा   है.  

सभी कुछ में  बस तू ही नुमा है. 

तो ,  जो गुनाह है, तेरा  किया है. 

इन्सान क्यों  मुजरिम का दर्जा दिया है. 

फिर, ख्याल क्यों ना आए  तू कहीं भी नहीं है. 



माना कि गुलगूं का तरफदार हूँ मैं. 

क़ाज़ी का  मज़लूम -ओ  मजबूर  हूँ मैं.  

रहबर है तू गर,  राहज़न  मैं    नहीं हूँ. 

गुनहगार, मानोगे,  हरगिज़ नहीं हूँ.



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